शिक्षा मानव जीवन की सुचिता और प्रबुधता से सम्बद्ध ऐसा समप्रत्यय हैं जो मानव समाज के सभी पक्षों को प्रभावित करती हैं। शिक्षा की अनेकों परिभाषाएं गढ़ी पड़ी हैं जो अपने दौर में सम्यक मनी गई । वर्तमान में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी की कोख से ऐसे मानव मस्तिष्क का जन्म हुआ है जो निहायत भोगवादी है यह भोगवाद यद्यपि क्षणिक रूप में परम संतुष्टि की अनुभूति से भरपूर है तथापि दीर्घावधि की संतुष्टि का द्योतक है।
पुरातन स्थितियों का समग्र अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि शिक्षा और मानव का अटूट नाता रहा है जो मौजूदा दौर में अविरल प्रवाहित है।भारत के संदर्भ में व्यवस्थित शिक्षा का काल 5 हजार वर्ष पूर्व से देखा गया जिसका संदर्भ वेदों से लिया जा सकता है।
उस दौर की शिक्षा आध्यात्म समेत चरित्र निर्माण पर बल देती थीं वहीं बौद्ध काल में शिक्षा को व्यवसाय से जुड़ता पाया गया और मुस्लिम काल की शिक्षा कठोर धर्मांधता की परिचायक बनी। औपनिवेशिक कालखंड में शिक्षा एक विशेष समुदाय की आवश्यकता पूर्ति का माध्यम बनी।
गौरतलब है कि उपयुक्त स्थितियां आज भी शिक्षा व्यवस्था में मौजूद होने के साथ इनका क्षेत्र भी व्यापक हुआ है।
क्या वास्तविक अर्थों में यही शिक्षा के पैमाने हैं ? स्पष्ट उत्तर होगा नहीं दरअसल शिक्षा का एक अलग संसार है जो उच्च विचारात्मक आदर्शों के साथ मानव मूल्यों को विकसित करती है जिसका परिणाम विलक्षण निकलता है जो सकारात्मक आलोक को सृजित करती है।
सही मायने में शिक्षा के पैमानों को मापने का कोई स्थिर मापदंड नहीं है। फिर भी शिक्षा एक ऐसी स्थिति है जो चरित्र निर्माण, अध्यात्मिक उन्नति, उच्च नैतिक मूल्य, मानवतावाद, सर्वधर्म सम्मान, परोपकार, कर्तव्यनिष्ठा, समेत जीविकोपार्जन के साथ प्राचीन सभ्यताओं और संस्कृतियों के समयक तत्वों को आधुनिकतावाद के साथ समायोजित कर प्राणी समाज को सकारात्मक आलोक में जीने का अवसर प्रदान करती है।